23 Feb 2022
अनिल यादव/न्यूज़ नगरी
भिवानी-माँ, मातृभूमि और मातृभाषा का कोई विकल्प नहीं होता। यह निर्विवाद सत्य है कि सबसे मधुर भाषा जिसमें अपनापन एवं आत्मीयता का गहरा रंग होता है, वह मातृभाषा होती है। विकसित देशों को निरन्तर प्रगति के मार्ग पर पहुँचाने के लिए मातृभाषा का सर्वाधिक योगदान हो रहा है। अनेक देश इसके प्रमाण हैं। कौशल विकास में भी मातृभाषा की भूमिका रहती है। मातृभाषा जीवन को सहज ढंग से जीने की कला प्रदान करती है, जो संप्रेषण और प्रेषणीयता का सशक्त माध्यम भी है। ये विचार चौधरी बंसी लाल विश्वविद्यालय के हिन्दी-विभाग द्वारा आयोजित आजादी के अमृत महोत्सव को समर्पित अन्तरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस के अवसर पर कुलपति प्रोफेसर राजकुमार मित्तल ने कहे। उन्होंने कहा कि मातृभाषा के माध्यम से अनेक छोटे-छोटे कार्य रोजगार सृजन में सहायक होते हैं। मातृभाषा हमारी संस्कृति की धरोहर व राष्ट्र का गौरव है। इसलिए मातृभाषा व्यक्तित्त्व एवं राष्ट्र निर्माण में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण मानी जाती है। इस अवसर पर हिन्दी विभागाध्यक्ष प्रोफेसर बाबूराम ने अतिथियों का स्वागत करके विषय प्रवर्तन करते हुए अन्तरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस के इतिहास, प्रयोजन और भारत सरकार द्वारा किए गए प्रयासों पर विस्तार से प्रकाश डालते हुए कहा कि 2020 में घोषित ‘राष्ट्रीय शिक्षा नीति’ में मातृभाषा अध्ययन को प्राथमिकता दी गई है। भारतीय महापुरुषों-नेताजी सुभाषचंद्र बोस, महात्मा गाँधी जी, वीर सावरकर, मदनमोहन मालवीय, रवींद्रनाथ ठाकुर, महर्षि दयानंद सरस्वती, स्वामी विवेकानंद, स्वामी ब्रह्मानन्द सरस्वती ने शिक्षा का माध्यम मातृभाषा पर विशेष बल दिया। मातृभाषा बहुमुखी विकास में सहायक पंचकोश पर आधारित शिक्षा को विकसित करेगा। विश्वविद्यालय की कुलसचिव डॉ. ऋतु सिंह ने अन्तरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस के महत्त्व को रेखांकित करते हुए कहा कि-निज भाषा से ही उन्नति संभव है और मातृभाषा को तकनीक एवं प्रौद्योगिकी से जोड़कर इसका प्रचार कर सकते हैं। इस महोत्सव पर दिल्ली विश्वविद्यालय के हिन्दी-विभाग के प्रोफेसर पूरन चन्द टंडन ने कहा कि जो वात्सल्य हमें अपनी माँ से मिलता है, वही गुण हमें अपनी मातृभाषा से मिलते हैं। उन्होंने इस बात पर विशेष बल देते हुए कहा कि वर्तमान समय में अनेक भाषाओं और बोलियों का लुप्त होना चिंता का विषय है। अब समय आ गया है कि अपनी मातृभाषा का उन्नयन, संवर्धन एवं संरक्षण करना आवश्यक है। लोक साहित्य के लोकगीत, लोककथा, लोकगाथा, लोकनाट्य व लोकसुभाषित मातृभाषा के बिना एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकते। मातृभाषाओं ने फिल्म उद्योग को भी बढ़ावा दिया। विश्वविद्यालय के डीन अकेडमिक अफेयर्स एवं कला संकाय के अधिष्ठाता प्रोफेसर राधेश्याम शर्मा ने मातृभाषा को मनोविज्ञान एवं अन्य विषयों के साथ जोड़ते हुए मातृभाषा की भूमिका पर प्रकाश डाला। कार्यक्रम में एम.ए. हिन्दी के छात्र नवीन ने मातृभाषा पर सारगर्भित कविता प्रस्तुत की। कार्यक्रम का शुभांरभ सरस्वती वंदना व दीप प्रज्वलन के साथ हुआ। इस अवसर पर विश्वविद्यालय के विभिन्न विभागों के शिक्षकों, कर्मचारियों और विद्यार्थियों की सक्रिय भागीदारी रही। हिन्दी-विभाग के शिक्षकों ने मुख्य अतिथि को शॉल और स्मृति-चिह्न भेंट किया। कार्यक्रम का सफल संचालन डॉ. सुशीला ने किया। उत्सव का समापन राष्ट्रगान के साथ हुआ।